स्किजोफ्रेनिया ट्रिगर पॉइंट्स: भारत में जोखिम बढ़ाने वाले प्रमुख कारण

स्किजोफ्रेनिया ट्रिगर पॉइंट्स: भारत में जोखिम बढ़ाने वाले प्रमुख कारण
Tarun Pareek
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स्किजोफ्रेनिया ट्रिगर पॉइंट्स: भारत में जोखिम बढ़ाने वाले प्रमुख कारण

स्किजोफ्रेनिया: जोखिम बढ़ाने वाले प्रमुख कारण और भारत में स्थिति

स्किजोफ्रेनिया कोई मामूली मानसिक बीमारी नहीं है—यह दिमाग और सोच को इस कदर डगमगा देती है कि इंसान को अपनी ही सोच और हकीकत के बीच फर्क समझ नहीं आता। स्किजोफ्रेनिया के ट्रिगर पॉइंट्स या कारण जितने जटिल हैं, उतनी ही जरूरी है इनकी सही पहचान। खास तौर पर भारत में, जहां करीब 1.41% लोग अपने जीवनकाल में इसकी चपेट में आते हैं, ये ट्रिगर बारीकी से समझना जरूरी है। पर सबसे चौंकाने वाली बात है कि 72% लोग इलाज से आज भी दूर हैं।

सबसे पहले देखें तो जेनेटिक यानी आनुवंशिक कारण इसकी जड़ में हैं। अगर परिवार में किसी को स्किजोफ्रेनिया रहा है तो खून में ही यह खतरा बढ़ जाता है। दिमाग की बनावट में बदलाव और न्यूरोट्रांसमीटर (जैसे डोपामिन या सेरोटोनिन) का बिगड़ा संतुलन अहम भूमिका निभाते हैं। ये असंतुलन सोच, भावनाओं और फैसले लेने के तरीके पर असर डालते हैं।

भारत जैसे देश में जहां मानसिक स्वास्थ्य को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है, वहां सामाजिक और पर्यावरणीय कारण भी तगड़ा असर डालते हैं। बच्चों के जन्म से पहले मां का किसी संक्रमण या पोषण की कमी से जूझना, जन्म के बाद बचपन में टॉर्चर, नशा (खासकर गांजा) का इस्तेमाल, या विटामिन डी की कमी—ये सभी रिसर्च में बार-बार सामने आए हैं। कुछ स्टडीज यहां तक दिखाती हैं कि जो लोग स्कूल से बाहर निकलकर खास स्किल सीखने का मौका नहीं पाते, उनमें रिस्क 1.7 गुना ज्यादा रहता है। वहीं बेरोजगारों में स्किजोफ्रेनिया के चांस 71% ज्यादा पाए गए हैं।

  • पुरुषों में 30–49 साल की उम्र सबसे ज्यादा संवेदनशील मानी गई है। 30–39 साल में खतरा 72% और 40–49 में 90% तक बढ़ जाता है।
  • अक्सर कम आय, कम शिक्षा और सामाजिक अलगाव वाला माहौल दिमाग पर बुरा असर डालता है।
  • हिंदी बोलने वाले मरीजों में भाषा समझने का संघर्ष भी सामने आया है, जिससे उपचार और भी मुश्किल हो जाता है।

क्या सिर्फ जैविक और सामाजिक कारण ही जिम्मेदार हैं? मामला इतना आसान नहीं है। भारत में सांस्कृतिक और पारिवारिक रिश्तों की उथल-पुथल भी लक्षणों की शक्ल बदल देती है। यहां का समाज अक्सर किसी की डिल्यूजन या गलतफहमी को अंधविश्वास मान लेता है, जिसकी वजह से इलाज में देर हो जाती है। कभी-कभी घर का माहौल—जैसे रिश्ता खराब होना या किसी अपने को खो देना—भी इस बीमारी के उभरने के ट्रिगर बन जाते हैं।

जल्दी पहचान ही बचाव है

जल्दी पहचान ही बचाव है

अब अगर ट्रिगर पर वक्त रहते गौर नहीं किया, तो समस्या बढ़कर रोजमर्रा की जिंदगी को पूरी तरह पंगु बना सकती है। इलाज में देर यानी नुकसान दोगुना—जिंदगी भर की दिक्कतें, काम से दूरी और रिश्तों में टूटन। विशेषज्ञ बार-बार कहते हैं कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य के असली दुश्मन सिर्फ बीमारी नहीं, बल्कि इलाज की भारी कमी, सही जानकारी का अभाव और सामाजिक शर्म है।

अगर किसी घर में कोई शख्स अचानक खुद में गुम रहने लगे, बातों में उलझन हो, या माहौल से डरने लगे तो ये पहला संकेत हो सकता है। सरकारी सुविधाएं कम हैं, लेकिन अब स्मार्टफोन्स और टेलीमेडिसिन ने मदद के नए रास्ते खोले हैं। आगे बढ़ने के लिए भारत को सिर्फ दवा नहीं, बल्कि समाज और परिवार के नजरिए की भी सख्त जरूरत है।

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