बॉब सिम्पसन: ऑस्ट्रेलिया के पहले वर्ल्ड कप-विजेता कोच का 89 साल की उम्र में निधन

बॉब सिम्पसन: ऑस्ट्रेलिया के पहले वर्ल्ड कप-विजेता कोच का 89 साल की उम्र में निधन
Ranjit Sapre
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बॉब सिम्पसन: ऑस्ट्रेलिया के पहले वर्ल्ड कप-विजेता कोच का 89 साल की उम्र में निधन

एक कप्तान जिसने 30वें टेस्ट में पहला शतक लगाया और फिर तिहरा शतक ठोक दिया

क्रिकेट दुनिया ने एक ऐसा शख्स खो दिया जिसने खिलाड़ी, कप्तान और कोच—तीनों भूमिकाओं में मानक तय किए। बॉब सिम्पसन का 15 अगस्त 2025 को सिडनी में 89 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। नाम के साथ ‘सिमो’ जुड़ा था, पर पहचान जुड़ी थी स्टील-सी अनुशासन और ठंडी-सधी रणनीति से। 1980 के दशक में जब ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट लगातार हार रहा था, उसी दौर में उन्होंने टीम को उठाया और विश्व चैंपियन बनाया।

सिम्पसन का करियर 21 साल तक फैला—1957 से 1978 के बीच 62 टेस्ट, 4,000 से ज्यादा रन (औसत 46.81) और लेग-स्पिन से 71 विकेट। ये आंकड़े सिर्फ स्कोरकार्ड नहीं, एक ऑलराउंड क्रिकेट दिमाग की कहानी हैं। स्लिप में उनकी मौजूदगी अपने आप में टेंशन बढ़ा देती थी; हाथ मानो चुंबक, प्रतिक्रिया बिजली-सी तेज। फर्स्ट-क्लास में 21,029 रन और 349 विकेट इस बात का सबूत हैं कि उनका खेल किसी एक भूमिका में सीमित नहीं था। न्यू साउथ वेल्स के लिए 16 साल की उम्र में डेब्यू—इतनी जल्दी शुरुआत और इतना लंबा टिकना, बहुत कम होते हैं।

कप्तान बनते ही उनका बल्ला बदला। कप्तानी से पहले औसत 33.67 था; कप्तानी के दौरान वही खिलाड़ी 54.07 पर पहुंच गया। उनके सारे 10 टेस्ट शतक कप्तानी में आए—मानो जिम्मेदारी ने खेल खिलाया। 1964 मैनचेस्टर की 311 रन की पारी तो आज भी अंग्रेजी गर्मियों की सबसे यादगार कहानियों में दर्ज है। उसी दौर में दो डबल-सेंचुरी और, यानी सिर्फ टिके नहीं, मैच पर कब्जा किया।

1968 में उन्होंने संन्यास ले लिया, पर 1977 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट का सबसे उथल-पुथल भरा समय आया। वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट के कारण राष्ट्रीय टीम टूटी-सी दिख रही थी। 41 की उम्र में सिम्पसन वापस लौटे और फिर कप्तान बने। भारत के खिलाफ पांच घरेलू टेस्ट और उसके बाद वेस्टइंडीज में चुनौती—उन्होंने एक कमज़ोर दिखती टीम को संयम दिया और ड्रेसिंग रूम को दिशा। ये वापसी सिर्फ मैच खेलने भर की नहीं थी; ये पीढ़ीगत पुल बनाना था ताकि ऑस्ट्रेलिया फिर से प्रतिस्पर्धी बने।

सिम्पसन का बल्लेबाज वाला कौशल अक्सर फील्डिंग की छाया में आ जाता है, पर उनका लेग-स्पिन भी कम उपयोगी नहीं था। लंबे स्पेल नहीं, पर टाइट लाइन और शातिर फील्ड सेटिंग्स—कई बार उन्होंने पार्टनरशिप तोड़ी जो मैच का टोन बदल देती थीं। पर हकीकत यही है कि स्लिप में उनकी छवि सबसे प्रखर थी—कमरे में रोशनी जैसे किसी एक बटन से चलती है, वैसे स्लिप कॉर्डन उनकी मौजूदगी से जीवित लगता था।

कोच सिम्पसन: ऑस्ट्रेलियाई पुनर्जागरण, 1987 की ट्रॉफी और 1995 की कैरेबियन फतह

1986 में ऑस्ट्रेलिया ने पहली बार एक फुल-टाइम राष्ट्रीय कोच नियुक्त किया—और वहां से आधुनिक ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट की रीढ़ बनी। टीम उस वक्त हार की आदत में फंसी थी। एलेन बॉर्डर कप्तान थे, पर उनकी कठोरता को एक ढांचे की जरूरत थी। सिम्पसन ने वही ढांचा बनाया—फिटनेस, फील्डिंग और माइंडसेट पर बेरहम फोकस। नेट्स में ढील नहीं, कैचिंग ड्रिल्स में समझौता नहीं, फुर्ती और रिफ्लेक्स पर दिन-रात काम।

परिणाम दिखे और जल्दी दिखे। 1987 का क्रिकेट वर्ल्ड कप भारत में हुआ और कोलकाता के ईडन गार्डन्स में ऑस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड को हराकर पहली बार ट्रॉफी उठाई। वह फाइनल सिर्फ जीत नहीं था, एक नए ऑस्ट्रेलिया की घोषणा थी। इंग्लैंड की पारी में माइक गैटिंग का वो रिवर्स स्वीप—एलेन बॉर्डर की गेंद पर आउट—आज भी मैच का टर्निंग पॉइंट माना जाता है। रणनीतिक अनुशासन और दबाव में फील्डिंग, यहीं सिम्पसन का प्रभाव सबसे साफ दिखा।

1989 में इंग्लैंड जाकर एशेज 4-0 से जीतना—वह दौर याद कीजिए जब लॉर्ड्स से ओवल तक ऑस्ट्रेलिया की चुनौती का जवाब किसी के पास नहीं था। फिर 1995—कैरेबियन में वेस्टइंडीज को उनकी धरती पर हराना। लगभग डेढ़ दशक तक वेस्टइंडीज के सामने दुनिया झुकी रही थी; ऑस्ट्रेलिया ने वही मिथक तोड़ा। कोच सिम्पसन और नए कप्तान मार्क टेलर के साथ बनी मशीनरी ने टेस्ट क्रिकेट की सत्ता बदल दी।

सिम्पसन की कोचिंग की फिलॉसफी सीधी थी—जो दिखे वही काम आए। उन्होंने प्रैक्टिस को मैच की रफ्तार में ढाला। हाई-कैचिंग सेशन, डायरेक्ट-हिट का टारगेट, स्लिप कॉर्डन के लिए खास एंगल ड्रिल्स, और फिटनेस को गैर-समझौतावादी मानक। गलतियों के लिए ‘नो-एक्सक्यूज़’ संस्कृति—यहीं से ऑस्ट्रेलिया की फील्डिंग दुनिया की ईर्ष्या बनी।

उसी दौर में कई करियर दिशा पाए—एलेन बॉर्डर की कप्तानी को ढांचा, मार्क टेलर की कप्तानी को स्थिरता, स्टीव वॉ की जिद में टेम्पर्ड स्टील, इयान हीली की कीपिंग में धार, और 1990 के दशक की शुरुआत में शेन वॉर्न जैसे स्पिनर और ग्लेन मैक्ग्रा जैसे तेज गेंदबाजों के लिए स्पष्ट मानक। सिम्पसन ने प्रतिभा को ‘सिस्टम’ दिया, जिससे खिलाड़ी सिर्फ चमके नहीं—लंबे समय तक भरोसेमंद बने।

उनके कार्यकाल की तीन मील के पत्थर अक्सर दोहराए जाते हैं:

  • 1987—भारत में ऑस्ट्रेलिया का पहला वर्ल्ड कप खिताब
  • 1989—इंग्लैंड में एशेज की दबदबे वाली वापसी
  • 1995—कैरेबियन में वेस्टइंडीज पर ऐतिहासिक टेस्ट सीरीज जीत

जुलाई 1996 में उनका कार्यकाल खत्म हुआ और जिओफ मार्श ने जिम्मेदारी संभाली। पर सिम्पसन का ‘कोच’ किरदार खत्म नहीं हुआ। उन्होंने सत्तर के पार की उम्र में भी कोचिंग जारी रखी—नीदरलैंड्स के साथ काम करते हुए टीम को 2007 वर्ल्ड कप के लिए क्वालिफाई कराया। इंग्लैंड में लेस्टरशायर और लैंकाशायर के साथ भी उन्होंने काउंटी क्रिकेट में पेशेवर मानक सेट किए।

सम्मान अपने आप आए—1965 में विस्डन क्रिकेटर ऑफ द इयर, 1978 में ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया (बाद में 2007 में ऑफिसर—AO), और फिर आईसीसी हॉल ऑफ फेम तथा ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट हॉल ऑफ फेम में शामिल होना। पर शायद सबसे बड़ा सम्मान वही है जो स्कोरकार्ड नहीं बताते—एक टीम संस्कृति जिसे दूसरों ने कॉपी किया।

सिम्पसन का असर आंकड़ों से बहुत बड़ा है। उन्होंने ‘कैसे खेलते हैं’ से ज्यादा ‘कैसे तैयारी करते हैं’ पर ज़ोर दिया। फिटनेस को उन्होंने विकल्प नहीं, पूर्वशर्त बनाया। फील्डिंग में गिरते मानक उनके सामने टिकते नहीं थे—चाहे वह स्लिप में रिएक्शन हो या आउटफील्ड में डायरेक्ट-हिट। मानसिक मजबूती—यह शब्द उनके ड्रेसिंग रूम में रोजमर्रा का हिस्सा था। मैच से पहले योजना, दौरान में सूक्ष्म समायोजन, और बाद में कठोर समीक्षा—इसी चक्र ने ऑस्ट्रेलिया को 1990 के दशक की सबसे संगठित टेस्ट टीम बना दिया।

भारत के नजरिये से देखें तो सिम्पसन का नाम दो बार बहुत गूंजता है—1977-78 में उनकी कप्तानी में भारत के खिलाफ सीरीज और 1987 का वर्ल्ड कप, जो भारतीय सरजमीं पर खेला गया। ईडन गार्डन्स की भीड़ और वह हाई-वोल्टेज फाइनल, ऑस्ट्रेलिया की फुर्तीली फील्डिंग और बॉर्डर की कप्तानी—इन सबके पीछे वह शख्स था जिसने तैयारी की परिभाषा बदली।

खेल के बदलते दौर में कोच की भूमिका भी बदली। आज एनालिटिक्स, डेटा-डैशबोर्ड और स्पेशलिस्ट स्टाफ हैं, पर 1986 में फुल-टाइम राष्ट्रीय कोच बनना ही नया था। सिम्पसन ने उस भूमिका की सीमाएं बढ़ाईं—वे केवल नेट सेशन मैनेजर नहीं थे, वे सांस्कृतिक आर्किटेक्ट थे। यही वजह है कि जॉन बुकानन से लेकर डैरेन लेहमन और आगे की पीढ़ी तक, ऑस्ट्रेलिया की कोचिंग दर्शन में उनकी छाप दिखती है—कठोर मानक, स्पष्ट भूमिकाएं, और जीत को आदत बनाना।

सिम्पसन की अपनी बल्लेबाजी की कहानी भी प्रेरक है। 30वें टेस्ट तक शतक नहीं, और फिर पहला शतक आकर 311 में बदल जाना—यह सिर्फ तकनीक नहीं, मानसिक उलटफेर था। कप्तानी ने उन्हें अंदर से बदला; उन्होंने हालात से लड़ना सीखा और उसी कौशल को आगे चलकर कोचिंग में ढाला। कप्तान के रूप में वे जोखिम लेने से नहीं डरते थे, और कोच के रूप में उन्होंने वही साहस खिलाड़ियों में भरा—लंबी स्पेल फील्डिंग ड्रिल्स हों या टारगेट पर थ्रो, ‘करीब-करीब’ उनके यहां पासिंग मार्क नहीं था।

क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया की हाई-परफॉर्मेंस सोच पर उनका असर स्थायी है—डेवलपमेंट टूर, ‘ए’ टीम प्रोग्राम, और घरेलू क्रिकेट के साथ राष्ट्रीय टीम का सुसंगत पुल। उन्होंने टैलेंट और टेम्परामेंट के बीच की दूरी कम की। इसलिए उनके छात्र सिर्फ स्टार नहीं बने, लंबे समय तक मैच-विनर बने।

उनकी विदाई एक युग का पड़ा विराम है। पर उनकी बनाई बुनियाद—फिटनेस की अनिवार्यता, फील्डिंग की बारीकी, और मानसिक दृढ़ता—आज भी टीमों के ड्रेसिंग रूम में नियमों की तरह टंगी है। क्रिकेट में विरासत वही होती है जो समय के साथ और मजबूत हो। सिम्पसन ने वही विरासत छोड़ी—मानक इतने ऊंचे कि आने वाली पीढ़ियां उन्हें पाने की कोशिश करती रहें।

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